गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

पंचायत चुनाव और पंचसहिया नोट

दहाये हुए देस का दर्द- 72

मिथक मशहूर है। किसी बड़े आयोजन या ब्याह-शादी के दिन अगर बूंदाबांदी हो, तो शुभ। बारिश हो , तो थोड़ा कम शुभ । लेकिनब्याह के दिन अगर मूसलाधार बारिश पड़ जाये, आंधी-तूफान आ जाये, तो अशुभ ही अशुभ। गांव के कनहा-कोतरा (महत्वहीन लोग) भी कहने लगते हैं- "अभागल के ब्याह हो रहा है। गाय-माल को ओस्थर (घास-भूषा) दे दो और खुद ओढ़ना ओढ़ के सो जाओ। "डाढ़ी खोक' के बरात जाओगे तो पछताओगे बाबू।'
बिहार के कोशी अंचल में आज भी ये सब देखने-सुनने को मिल जाते हैं। गनीमत है कि चुनावी-आयोजन पर ये सब टोना-टोटका लागू नहीं होता। कल और परसों कोशी में एक बार फिर आंधी आयी, मूसलाधार बारिश और आसमानी पत्थर ने गेहूं, मकई और केले की फसल को खेत में ही खेत कर दिया। करीब आठ लोगों के प्राण गये और दो दर्जन गंभीर रूप से घायल हुये। अगले दिन पंचायतों के "नव-अंग्रेज बहादुरों' के निर्वाचन के लिए प्रथम चरण के मतदान हुए। रिपोर्ट है कि किशनगंज में रिकॉर्डतोड़ 75 प्रतिशत मतदान हुआ। सुपौल, मधेपुरा, अररिया और सहरसा में भी मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की भारी भीड़ थी। हालिया विधानसभा चुनाव की तरह पंचायत चुनाव में भी स्त्रीगण पुरुषगण पर भारी रहीं। हर केंद्रों पर औरतों की कतार पुरुषों से लंबी थी।
"काहे को ? पुरुष कहां गये ?'
 जी, उ सब परदेस में हैं। कोई पंजाब में, कोई लुधियाना में, काेई हरियाणा, सूरत और कश्मीर में है। कोई-कोई दुबई और कतर में भी है। इसलिए नजर नहीं आ रहे। पर ई मत समझिये कि मतदान में उनको कोई दिलचस्पी नहीं है। पहर-दुपहर में घरवाली के मुबाइल पर फोन आते रहता है।
"ताकिद पर ताकिद हो रही है। पूबरिया टोल के गणपत जादव को भोट नहीं देना है। भोट, दछिनवरिया टोला के लखना महतो को ही देना है। पर भोट देने के लिए घर से तभी बहराना जब टका खुईचा (आंचल) में आ जाये। टका नहीं दे, तो किसी बभना (ब्राह्मण) को ही भोट दे देना। बभना जीतेगा तो नहिंये, तब लखनमा सरवा भी नहिंये जीतेगा। हमर भोट कोनों फोकट में आया है। पांच सवांग हैं, पांच ठो पंचसहिया (पांच सौ) के नोट लेंगे, तभिये ठप्पा मारेंगे।'
"हे जी, गाम में हल्ला है कि सबसे ज्यादा टका उतरवरिया टोल के पुरना मुखिया (पूर्व मुखिया) दुरजोधन जादव बांट रहा है? '
"भक, बोंगमरनी ! ऊ सार बेईमान है। याद नहीं है कि पिछला बेर सबको नेपाली फर्जी नोट बांटकर मुखिया बन गिया था। मुखियागरी करके खाकपति से लाखपति बन गिया। चाइर-चक्की पर चढ़ने लगा है। आउर हम एक ठो इंनिरा आवास मांगने गिये, तो बोला- पांच हजार खरचा लगेगा। उ सार को भोट नहीं देना है।'
"ठीक है, रात में फेर फोन कीजियेगा। अभी दरवाजे पर सब महाजन (उम्मीदवार) बैठा हुआ है। सब काउलैत (गिड़गिड़ा) कर रहा है। भोट हमको ही दीजिए, जोगबनी वाली! भूवन दास तंे संबंधों फरिया रहा है। कह रहा हमर पित्ती (चाचा) और तोहर बाप  बाउन (दोस्त)थे। हम तें तोहर सवांग जैसन हैं।'
"छोड़-छोड़। ई सब भोट के रिश्ता है। जीतेगा तें मुंह दिस नहीं ताकेगा। हं ! टका सहेजकर रखना। जनमअठमी (जन्मअष्टमी) के मेला में सब टिकली-फूल में फूक नहीं देना। हम आवेंगे, तो सब हिसाब लेंगे।'
जी हां। चाहे जितना शोर मचा लीजिए। सत्ता विकेंद्रीकरण, महिला सशक्तिकरण का फाग गा लीजिए। पंचायती संस्था और  पंचायत चुनाव की यही हकीकत है। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि सबसे निचले स्तर के चुनाव में कोशी के लोग, कोशी की समस्या की बात नहीं करते। कुछ दिन पहले जब मैंने गांवों में मुखिया, जिला परिषद और पंचायत समिति के उम्मीदवारों को पूछा कि क्या वे चुनाव में कोशी नदी की समस्या को उठा रहे हैं, तो वे भौंचक्क रह गये। जब मैंने बताया कि पंचायत चुनाव ग्रास रूट लेवल की राजनीति है, अगर वहां जमीनी समस्याएं नहीं उठेंगी, तो फिर कहां उठेंगी ? तो अधिकतर ने जो जवाब दिया उसका आशय था कि यहां लोग अपने निजी तात्कालिक हित के हिसाब से सोचते हैं। प्रत्याशी यह सोचकर चुनाव लड़ते हैं कि जीतने के बाद उनका बैंक बैलेंस और रूतबा दोनों बढ़ जायेगा। मतदाता यह देखते हैं िक कौन-से उम्मीदवार उन्हें प्रति वोट सबसे ज्यादा रकम दे सकता है और जीतने के बाद ज्यादा-से-ज्यादा सरकारी मुफ्तखोरी करवा सकता है।
यही कारण था कि भीषण आंधी-तूफान के दिन भी मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की भारी भीड़ थी। खेतों में  मकई, गेहूं और केले की बबार्दी साफ दिख रही है। पर उधर किसी का ध्यान नहीं । एक बूढ़े व्यक्ति से जब मैंने सवाल किया, तो उसका जवाब था, "टका लिये हैं भोट तो देना ही होगा ! भोट नहीं देंगे, तो मुआवजा से भी वंचित कर देगा।'
बहरहाल,सचिवालय का बुलेटिन कुछ और है, जिसे संक्षेप में कुछ इस तरह बयां किया जा सकता है- "बिहार में पंचायती राज का तीसरा महापर्व चल रहा है। चुनाव शांतिपूर्ण माहौल में हो रहा है। बिहार की महिलाएं अब बहुत जागरूक हो गयी हैं। मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।'

रविवार, 17 अप्रैल 2011

समय का सर्कस

टी-शर्ट के आगे
विज्ञापन के पीछे
इंडिया लिख देने से,
सीट पर कुत्ता
डिग्गी में तिरंगा
और इंडिया गेट पर बनभोजी हल्ला से
देश कहां बनता है,
बल्ला "भगवान'' का ही सही
अन्न नहीं उपजाता है
चूंकि हमारे समय में
हंसना-गाना, खेलना-कूदना भी प्रोडक्ट है
इसलिए जहां होना था देश
वहां क्रिकेट है।

बाढ़ आयेगी, भसियाकर चली जायेगी
जीर्ण-शीर्ण जानों को समेटकर सुखाढ़ भी जायेगा
बाकी का काम
बीमारी और महंगाई कर देगी
जंगल में बंदूक
खेतों में खुदकुशी की फसल लहलहाती रहेगी
बच्चे भूख से बिलबिलाएंगे
मां, स्कोर पूछेंगी
क्रिकेट चलता रहेगा...
शाश्वत सच की तरह
पछवा हवा
नकली दवा की तरह,
क्रिकेट चलेगा
तो, बलात्कार की खबरें बंद रहेंगी
और
प्रलय की ओर बढ़ती धरती
फिर से जी उठेगी
एक जोरदार छक्का लगेगा
और
एक संझा चूल्हा, दोनों टाइम जलने लगेगा,

यह उनका दौर है
उन्हीं का मैनेजमेंट
उनकी ही व्याख्या
उनकी ही लूट
और उनकी ही लड़ाई है
वे मुदई
और मुदालय भी हैं
अपना ही आरोप
अपनी ही सुनवाई
उन्हीं का मुकदमा
उन्हीं की गवाही होगी
जिनकी नजरों में
आदमी सिर्फ आबादी है
सवा सौ करोड़ लोग
एक समय वोट, बाकी समय बोट है
और जनता !
हां जनता। आखिरी झूठ है।

यहां, हर कोई गूंगा है
जो बयान दे सकता है
वही वक्ता है
वो भूख के जुर्म में
खेत पर मुकदमा चला सकता है
लूट को
राजनीतिक जरूरत बता सकता है
सेंध-सने हाथ से
नक्कासी
खून-रंगे जीभ से
मल्हार गा सकता है
"मलखा भौंचक्क है ''
नहीं, यह सर्कस नहीं है

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

मोहाली की मदहोशी


निश्चित ही वह एक मतवाली रात थी। एक अखिल भारतीय मदहोशी की रात थी वह
भारत के अब तक के ज्ञात इतिहास में शायद ऐसा पहले कभी नहीं हुआ होगा, जब गुवाहाटी से गुजरात तक और चौराहे से चौपाल तक के लोगों ने एक साथ पटाखे छोड़े हों, क्योंकि दीपावली भी हर राज्य में नहीं मनायी जाती। एसएमएस से बधाई संदेश भेजने वाले मित्रों से मैंने जानना चाहा कि अगर यह जीत किसी अन्य देशों के खिलाफ मिली होती, तो भी क्या हम इतने ही खुश होते ! लगभग एक सूर में सभी ने कहा- नहीं। खुशी की मुख्य वजह भारत की जीत नहीं, बल्कि पाकिस्तान की हार है। मैंने पूछा कि अगर मैं कहूं कि यह पाकिस्तान नहीं पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की हार है, तो आप क्या कहेंगे ? उन्होंने कहा- कुछ भी हो हमने पाकिस्तान को हरा दिया है। यानी क्रिकेट यहां सिर्फ साधन था, साध्य तो श्रेष्ठता की पदवी हासिल करना है। शिक्के को उलटकर देखने से भी यही पहलू सामने आता है। पाकिस्तान से आने वाली खबरें बताती हैं कि 30 तारीख की रात पाकिस्तानियों के लिए कयामत की रात थी। जाने कितने पाकिस्तानियों ने टेलीविजन सेट तोड़ दिये। आत्महत्या की भी कुछ खबरें आयी हैं। पाकिस्तानी अवाम मायूसी के समंदर में डूब गये, मानो किसी ने उनकी अस्मिता लूट ली हो या उनसे कोई ऐतिहासिक पाप हो गया हो।
हालांकि यह सौ प्रतिशत सच है कि क्रिकेट के दम पर आज तक तो दुनिया में कोई श्रेष्ठ हुआ है और ही कभी
होगा। दशकों तक क्रिकेट के बादशाह कहलाने वाले कैरीबियन देशों की गिनती आज भी दलित-देशों के रूप में होती है। लगातार तीन बार विश्व कप जीतने के बावजूद ऑस्ट्रेलिया को कोई भद्र-देश नहीं कहता। बहुतेरे लोग इस द्वीप को आज भी चोरों-ठगों-अपराधियों के संतानों का देश भी कह डालते हैं।
बार-बार मन में यह सवाल कौंधता है कि आखिर जिस जीत से एक भी आम लोगों का भला नहीं हो सकता, उस पर
दिलो-जान लूटाने के क्या कारण हो सकते हैं? विशुद्ध कमोडिटी और व्यावसायिक उपक्रम हो चुके क्रिकेट को आखिर सवा सौ करोड़ की आबादी, राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक कैसे मान सकती है? जबकि सबको मालूम है कि देश भ्रष्टाचार और अन्याय की पराकाष्ठा पर जा पहुंचा है। करोड़ों लोग आज भी जीवन की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। ऊंचे बैठे लोगों के लिए राष्ट्रीयता महज एक प्रपंच है। विदेशी बैंकों में जमा अकूत काला धन इसका प्रमाण है। फिर भी हम क्रिकेट के जरिये सर्वश्रेष्ठ कहलाना चाहते हैं। कहीं यह अपनी असफलता का कूंठा तो नहीं ? तस्कीम के 63 वर्ष बाद भी अगर भारत और पाकिस्तान के लोग, एक-दूसरे से नफरत करते हैं, तो मतलब साफ है कि दोनों देश मानवीय विकास के मोर्चे पर पूरी तरह नाकाम है। घृणा का स्थायीपन, अशिक्षा और अंधेपन का प्रतीक ही नहीं, बल्कि असभ्यता की भी निशानी है। एक स्वस्थ्य और संजीदा इंसान लंबे समय तक किसी से घृणा नहीं कर सकता और प्रेम की अनुपस्थिति गैर-इंसानियत की ही निशानी है। लेकिन विडंबना यह कि भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में यह प्रवृत्ति हावी है। इसे खत्म करने के लिए बड़ा दिल चाहिए।