बुधवार, 9 दिसंबर 2009

बेपर्द होने लगे विकसित देशों के गुप्त मसौदे


मीनाक्षी अरोरा, कोपेनहेगन में
कोपेनेहेगेन जलवायु वार्ता जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे आशा और उम्मीदों के दिये कमजोर पड़ते जा रहे हैं। धरती गरम होती जा रही है, दुनिया के सैकड़ों द्वीप डूबने के कगार पर हैं, भारत के सुंदरवन के ही चार से ज्यादा द्वीप डूब चुके हैं। इन सबके बावजूद विकसित देश कोपेनेहेगेन जलवायु वार्ता में भी असल मुद्दे को छोड़कर अपनी चालबाजियों को अंजाम देने पर ही ज्यादा आमादा हैं। अब उनके कई गुप्त एजेंडे ओट से बाहर आने शुरू हो गये हैं।
7-18 दिसंबर तक चलने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सभा (यूएनएफसीसी) के कोपेनहेगन सम्मेलन के बीच की कई अंदरूनी जानकारियां अब बाहर आ रही हैं। इन जानकारियों के मद्देनजर कोप15 से कोई होप नजर नहीं आ रही है। ऐसा लगता है कि कोप 15 सचमुच विकासशील देशों को कोप में रखने का अखाड़ा बनता जा रहा है और विकसित देश फिर अपने विनाशकारी उपभोग की जीवनशैली को हर कीमत पर सुरक्षित रखते हुए विकासशील और गरीब देशों को इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार करने में भीड़ गये हैं।
जलवायु वार्ता उस समय अमीर-गरीब वार्ता मे बदल गई जब विकासशील देशों ने एक गुप्त दस्तावेज लीक होने के बाद नाराजगी और विरोध जाहिर किया है। लीक हुए दस्तावेज से यह साफ हो गया कि अगले सप्ताह दुनिया के नेताओं को एक ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा जाएगा जिससे न केवल अमीर देशों की शक्तियां बढ़ेंगीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र की भूमिका भी सीमित हो जाएगी। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर किसी संभावित समझौते के मामले में अमीर और विकासशील देशों के बीच मतभेद गहरा गया है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मलेन के दूसरे दिन ही मेज़बान देश डेनमार्क का मसौदा लीक हो गया है। इसे अमीर देशों की ओर से तैयार किया गया है। इस रहस्यमयी तथा-कथित समझौते पर मात्र कुछ लोगों द्वारा काम किया गया है, जिसे सर्किल ऑफ कमिटमेंट का नाम दिया गया है- हैरानी की बात तो यह है कि जिस समझौते पर दुनिया के नेता हस्ताक्षर करने वाले हैं और इसी सप्ताह उसे अंतिम रूप दिया जाना है उसे ब्रिटेन, अमेरिका और डेनमार्क सहित कुछ मुट्ठीभर देशों को ही दिखाया गया है।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, पर्यावरणविदों के मुताबिक़ यह मसौदा अमीर देशों के प्रति बहुत नरम है। विकासशील देशों का मानना है कि इस दस्तावेज में सन्‌ 2050 तक प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में भी विकसित और विकासशील देशों के बीच बनाई गई समय-सीमा में भी असमानता है। यानी कि अब अमीर देशों को दोगुना कार्बन उत्सर्जन करने की भी इजाजत मिल जाएगी। इतना ही नहीं इसमें विकासशील देशों को पर्याप्त धन देने का भी सुझाव नहीं है ताकि वे बढ़ते तापमान का मुकाबला करने के उपाय लागू कर सकने में सक्षम हों।
पर्यावरणविदों का तो यहां तक कहना है कि कोपेनहेगेन सम्मेलन का एक तात्कालिक उद्देश्य यह भी है कि क्योतो जलवायु संधि के बाद की संिध पर सहमति बने। क्योंकि क्योतो संधि की अवधि वर्ष 2012 में ख़त्म हो रही है ,लेकिन यह मसौदा क्योतो प्रोटोकाल को भी नकार रहा है जिसमें अमीर देशों को ही सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार मानकर एक बाध्यकारी समझौता करने के लिए कहा गया था।
दुनिया की लगभग 15 प्रतिशत आबादी का नेतृत्व करने वाले दुनिया के लगभग 85 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग कर रहे विकसित देश किसी कीमत पर अपनी राजशी छोड़ना नहीं चाहते। 1992 में रियो द जेनिरो (ब्राजील) में हुए पहले पृथ्वी सम्मेलन में जब किसी ने यह कह दिया कि पृथ्वी ग्रह के विनाश के लिए अन्य कारणों के साथ-साथ पश्चिम के लोगों का अति उपभोग भी जिम्मेदार है तो वहां उपस्थित तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश (सीनियर) तपाक से बोल पड़े- हमारी जीवनशैली पर कोई बहस नहीं हो सकती है। कहीं कोपेनेहेगेन में चल रहे गुप्त मसौदे के पीछे भी यही मंशा तो नहीं है?
संयुक्तराष्ट्र को किनारे करने की कोशिश
चूंकि यह मसौदा गुप्त रूप से तैयार किया गया है इसलिए इसके पीछे की मंशा साफ जाहिर हो रही है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा वार्ता में पहुंचे और पूरी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी हो तो सभी नेता उनके एक इशारे पर चुपचाप इस रहस्यमयी समझौते पर हस्ताक्षर कर दें। एक कूटनीतिज्ञ के अनुसार, ये सब इसलिए किया जा रहा है ताकि संयुक्त राष्ट्र की जलवायु वार्ता प्रक्रिया का पूरी तरह अंत हो जाये। संयुक्तराष्ट्र को दरकिनार करके जलवायु परिवर्तन की बातचीत में विश्व बैंक की भूमिका का मसौदा गुप्त रूप से बना रहा है। क्योंकि विश्व बैंक में लोकतंत्र नहीं है। वन कंट्री , वन वोट के सिद्धान्त पर चलने वाला संयुक्तराष्ट्र अमेरिका के लिए असुविधा पैदा करता है। जितनी पूंजी, उतने वोट के सिद्धान्त पर चलने वाला विश्व बैंक अमेरिका के लिए ज्यादा काम का है।
विश्व बैंक की भूमिका
ऑक्सफैम इंटरनेशनल के क्लाइमेट सलाहकार एंटोनियो हिल के अनुसार, इस मसौदे में एक ग्रीन फंड का भी प्रस्ताव है जिसका प्रबंधन करने के लिए एक बोर्ड होगा, लेकिन उसका सबसे खतरनाक पहलू ये हैं कि यह सब विश्व बैंक और ग्लोबल इनवायरनमेंट फैसिलिटी के हाथ में रहेगा। ग्लोबल इनवायरनमेंट फैसिलिटी 10 एजेंसियों का एक साझा समूह है जिसमें विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम शामिल हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र शामिल नहीं है। इस तरह यह मसौदा फिर से विकासशील देशों की बातचीत में बाधा डालने की अनुमति अमीर देशों को दे रहा है।
यह मसौदा डेनमार्क और दूसरे अमीर देशों ने एक कार्यकारी एजेंडे के तौर पर तैयार किया है, जिसे सभी देश अगले सप्ताह स्वीकार करेंगें। ऊपरी तौर पर अच्छा लगने वाला यह मसौदा वास्तव में बहुत खतरनाक साबित होगा क्योंकि इसमें संयुक्त राष्ट्र की वार्ता प्रक्रिया को दरकिनार कर दिया गया है और अमीर देशों की तानाशाही स्थापित की गई है।
एंटोनियो हिल ने स्पष्ट तौर पर कहा भी है कि हालांकि यह एक मसौदा है लेकिन इसमें खतरा साफ दिखाई दे रहा है, जब-जब अमीर देश हाथ मिलाते हैं और एक होते हैं तो गरीब देशों की आवाज को दबा देते हैं। मसौदे मे बहुत सी खामियां हैं, इनमें ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया है कि कार्बन उत्सर्जन में 40 फीसद कटौती होनी चाहिए, जैसा कि विज्ञान के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से निपटने के लिए जरूरी है।
हालांकि इसमें ये वादा किया गया है कि दुनिया भर के देश जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे तापमान में बढ़ोत्तरी को दो फ़ीसदी से भी कम रखेंगे और तापमान में बढ़ोत्तरी को दो सेंटीग्रेट से कम रखने की बात हैं, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि अमीर देश इस पर किस तरह अमल करेंगे। यह बहुत ही ख़तरनाक है। पर्यावरण से जुडी संस्था फ्रेंड्‌स ऑफ़ अर्थ के कार्यकारी निदेशक एंडी एटकिन्स का कहना है कि यह मसौदा पहली नज़र में बहुत अच्छा दिखता है, पर है बहुत ख़तरनाक। इसमें क्योटो प्रोटोकोल की अनदेखी की जा रही है।
बीबीसी की एक जानकारी के अनुसार क्योटो में वर्ष 1997 में हुई संधि की सबसे मुख्य मुद्दा औद्योगीकृत देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 1990 के स्तर से क़रीब सवा पॉंच प्रतिशत कम करने का था। क्योतो संधि बाध्यकारी नहीं थी और अमेरिका ने इस पर हस्ताक्षर भी नहीं किए थे। इसलिए इससे ज़्यादा उम्मीदें लगाई भी नहीं गई थीं। कोपेनहेगेन के जलवायु पिरवर्तन सम्मेलन में कोशिश, क्योतो संधि से कहीं ज़्यादा महत्वाकांक्षी संधि पर सहमति बनाने की है जो कि क़ानूनन बाध्यकारी भी हो। लेकिन असलियत में यह किसके लिए बाध्यकारी होगा, यह बताने की शायद अब जरूरत जरूरत नहीं रह गयी है।
फिलहाल तो पर्यावरण के सुधरने की संभावना कम ही नजर आ रही है। उपभोगवादी जीवनशैली, अंधाधुंध औद्योगीकरण, कंक्रीट के बढ़ते जंगल, खेती का नाश, जल-जंगल-जमीन पर पूजीपतियों का कब्जा, नदियों, तालाबों और समुद्र को जहरीला होने से नहीं रोका गया, तो कोपेनहेगन जैसे सम्मेलन भी बेनतीजा ही रहेंगे।
इंडिया वाटर पोर्टल (हिन्दी)
 

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

HAR STAR PAR RAAJNITI AUR SARV SHAKTIMAAN RAHNE KA KHEL KHELA JAATA HAI .....
MOOL SAMASYA JAS KI TAS RAHNE WAALI HAI .......