सोमवार, 29 जून 2009

ऊपर भूख मरी, नीचे भुखमरी (एक लघु कथा)

अमूमन ऐसा होता नहीं है, लेकिन ऐसा हो गया। एक ऐसे दौर में जब अमीरों के कुत्ते तक भी गरीबों के कुत्तों के साथ नहीं बैठते तब एक आइएएस अधिकारी और एक आकाल पीड़ित किसान के चूल्हे में मुलाकात हो गयी। और यह चमत्कार झारखंड के कालाहांडी कहलाने वाले पलामू प्रमंडल में हुआ। शायद यह बेमेल संयोग इस कारण संभव हुआ कि पिछले कुछ दिनों से आइएएस साहेब और उस गरीब किसान, दोनों के चूल्हे बहुत परेशान थे। हालांकि दोनों के रुतबा में आसमान-जमीन का फर्क था फिर भी वे एक पेड़ की नीचे बैठे और अपना-अपना दुखड़ा सुनाने लगे।
किसान के चूल्हे ने रोते हुए कहा- " क्या कहूं हवेली वाले भाई, पिछले पंद्रह दिनों में पंद्रह बार किसान की घरवाली से मिन्नत कर चुका हूं। मुझे यूं तिरस्कृत मत करो। कुछ तो सुलगाओ, कुछ तो पकाओ। लेकिन लगता है कि पूरे परिवार ने मरने की कसम खा ली है। लेकिन उन लोगों का भी क्या दोष ? उस बेचारे के घर में अन्न का एक दाना नहीं है। पकाये तो पकाये क्या ? भुखमरी की नौबत है, भाई । मुझसे यह अपमान सहा नहीं जाता। ''
आइएएस के चूल्हे ने भी लगभग रोते हुए जवाब दिया - " भाई मेरा गम भी कुछ कम न है। मेरे साहेब के नौकर खाना तो खूब पकाते हैं। हर दिन रंग-विरंग की डिस बनती है, लेकिन मेरा दुर्भाग्य यह है कि उन्हें खाने वाला कोई नहीं। साहेब को हाइ ब्लड प्रेसर है और डॉक्टर ने उन्हें डाइटिंग की सलाह दी है। मैडम का वेट पहले से ही ज्यादा है और वे अब तला-भूना बिल्कुल ही नहीं खाती। जब से उन्हें गैस की समस्या हुई है, तब से तो मानो फास्टिंग पर ही रहती हैं। घर में खाने के समान भरे रहते हैं, लेकिन घरवालों की भूख मर गयी है। अब बताओं मैं कैसे खुश रहूं। तुम्हारे यहां भुखमरी है और मेरे यहां भूख ही मर गयी है।''
 

शनिवार, 27 जून 2009

जाने क्या हो गया है मानसून को

(इलाहाबाद के पास एक गांव में बारिश के लिए इंद्र भगवान को मनाते बच्चे)
बिचड़े सूख रहे हैं। खेतों में दरार पैदा होने लगी है। हरियाली गायब हो रही है। कहीं जट्ट-जट्टिन का नाच हो रहा है तो कहीं कीचड़ में लथ-पथ होकर प्रार्थना की जा रही है। लेकिन मेघ का दिल नहीं पसीज रहा। किसान माथा पर हाथ धर के बैठे हैं। गांवों में हर जुबान पर एक ही सवाल हैं, कब होगी बारिश? मृग नहीं बरसा, तो आद्रा बरस के ही क्या होगा। बिचड़े ही नहीं रहेंगे, तो रोपेंगे क्या ? रोपेंगे नहीं तो खायेंगे क्या?
जवाब किन्हीं के पास नहीं है। सरकारी अमले से आश्वासन की बारिश हो रही है। थोड़ी देर से ही सही, लेकिन इंद्र आयेंगे, मेघ लायेंगे और बारिश होगी। आदि-आदि... लेकिन वे यह नहीं कह रहे कि मानसून में देरी के कारण क्या हैं ? इस देर की असल वजह क्या है ? सरकार सच पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही है। सच यह है कि पर्यावरण असंतुलन खतरनाक मोड़ तक पहुंच चुका है। समुद्र का चरित्र बदल चुका है। प्रदूषण ने पर्यावरण को घायल कर दिया है। इसलिए ये खतरे तो अब आते ही रहेंगे। कभी मानसून नहीं आयेगा, तो कभी शीत ॠतु लंबा खींच जायेगा। कभी बेमौसम अत्यधिक बारिश होगी तो कभी गर्मी में शर्दी लगने लगेगी और शर्दी में गर्मी। यह पर्यावरण की पीड़ा है, जिसे हम सुनना नहीं चाहते। और पीड़ित पर्यावरण पर इंद्र भगवान का भी नियंत्रण नहीं। टोना-टोटके में लगे मासूम किसानों को शायद यह नहीं मालूम।

शुक्रवार, 26 जून 2009

बांस का कछुआ !

उत्तर बिहार, असम, अरुणाचल प्रदेश और नेपाल में सदियों से बांस से तरह-तरह की कलाकृति बनायी जाती रही है। बांस आधारित लोक तकनीक इन इलाकों में कभी इतनी समृद्ध थी कि इससे घरेलू उपयोग के तमाम समानों के अलावा तरह-तरह के खिलौने, मूर्तियां, गहने आदि बनाये जाते थे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह लोक कला लगभग लुप्तप्राय हो गयी है। लेकिन आज भी पूर्वी नेपाल के सुनसरी और सप्तरी जिले में बांस-तकनीक जिंदा है। सुनसरी के एक होटल के सामने बांस से बने ये कछुए इस बात के प्रमाण हैं । इस कलाकृति के कारण आजकल इटहरी का यह होटल आकर्षण का केंद्र बन गया है।
(यह जानकारी सप्तरी नेपाल के पत्रकार धीरेंद्र कुमार बसनैत ने मुहैया करायी और तस्वीर कांतिपुर डाट कॉम से साभार )

बुधवार, 24 जून 2009

अपने विचारकों का पिंड दान करतीं पार्टियां (संदर्भ मिश्र हत्याकांड)

भारतीय राजनीति की यह मनविदारक विडंबना है। यहां हर राजनीतिक धारा अंततः सत्ता-आकांक्षा और शक्ति-पिपासा के समुद्र में तिरोहित हो जाती है। चाहे वह मुद्दों के आगोश से निकली पार्टी हो या फिर सरोकार और विचार की कोख से जन्मी पार्टी, भारत में सत्ता सब का आखिरी लक्ष्य हो जाती है।परिणामस्वरूप हर राजनीतिक पार्टी आखिरकार गिरोहों में तब्दील हो जाती है जिसकी पहली और आखिरी तमन्ना कुर्सी होती है। हर हाल में वे सत्ता के खजाने पर कब्जा जमाना चाहती हैं। और इसे पाने के लिए किन्हीं हदों की परवाह नहीं करतीं। इसका परिणाम यह होता है कि राजनीतिक पार्टियां सिद्धांत, उसूल और विचारधाराओं से दूर होती चली जाती हंै। और एक समय ऐसा आता है कि जब पार्टियों को यह भी याद नहीं रहती कि उनकी अपनी पहचान खत्म हो चुकी है। धीरे-धीरे वे अपने संस्थापकों से भी बहुत दूर हो जाती हैं। सत्ताई-वासना में पार्टियां इतना अंधा हो जाती हैं कि उन्हें पता भी नहीं चलता कि बिना गया गये ही कब उसने अपने-अपने विचार-पुरुषों का पिंड-दान कर दिया।
कांग्रेस पार्टी को आज महात्मा गांधी से कोई लेना-देना नहीं । समाजवादी पार्टियां लोहिया को भूल चुकी हैं। बहुजन समाज पार्टी में बाबा साहेब की छाया भी कहीं नहीं दिखती। भारतीय जनता पार्टी श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, डॉ हेडगवार के विचारों का दाह-संस्कार कर चुकी है। कम्युनिस्ट पार्टियां मार्क्स और लेनिन का विसर्जन कर चुकीं हंै। ऐसे में जो नेता वैचारिक प्रतिबद्धता पर कायम रहते हैं वे या तो हाशिए पर रहते हैं या फिर पार्टियों के लिए एक बोझ की तरह होते हैं। पार्टियों को ऐसे नेताओं के जीवित रहने या मर जाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। वे इस बात को भूल जाती हैं कि आज वे जिस सत्ताई फसल को काट रही हैं उनकी जड़ें प्रतिबद्ध नेताओं के पसीने से ही तैयार हुई थीं।
पांच दिन पहले मौंत की नींद सुला दिए गये बिहार के अररिया के वयोवृद्ध जनसंघी नेता देव नारायण मिश्र उर्फ देबू मिश्र के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। स्वर्गीय देव नारायण मिश्र उन चंद नेताओं में शामिल थे जिसने बिहार में जनसंघ की जमीन तैयार की। प्रखर विद्धान और सरस्वती-पुत्र देव नारायण मिश्र ने अपनी सारी जिंदगी भगवा-विचार के प्रचार में लगा दिया। भागलपुर के तेज नारायण बनेली महाविद्यालय से रिकार्डतोड़ अंकों के साथ एमए करने वाले देव नारायण मिश्र ने सरकारी नौकरी को ठोकर मारकर समाज सेवा को अपना जीवन-लक्ष्य निधार्रित किया। यह उनकी अथक मेहनत का ही परिणाम था कि जब बिहार के अन्य हिस्से में भाजपा को लोग जानते तक नहीं थे तब पूर्णिया, अररिया, किशनगंज और कटिहार में उस पार्टी के उम्मीदवार अच्छा-खासा मत हासिल करने लगे थे। नब्बे के दशक आते-आते ये क्षेत्र भाजपा के गढ़ में तब्दील हो गये। लेकिन देव नारायण मिश्र को श्रेय नहीं मिला। पार्टी जब खड़ी हो गयी तो मिश्र जैसे लोग हाशिए पर डाल दिए गये और धनवानों , बाहुबलियों और जातीय समीकरण वालों को एमपी, एमएलए का टिकट दिया गया। हालांकि मिश्र को इस बात का कभी भी मलाल नहीं रहा।
छह साल पहले अररिया में एक दिन उनसे मेरी मुलाकात हुई थी। वे कई वर्षों से अररिया में रह रहे थे और इलाके के अत्यंत प्रसिद्ध वकील थे। लेकिन उनके पास रहने के लिए एक टूटा-फूटा फूस का घर ही था। पक्के और आलीशान घर बनाने की उन्हें कभी कोई इच्छा नहीं हुई। जबकि उनके कई जूनियर वकीलों ने चंद वर्षों में ही बड़े-बड़े अट्टालिका खड़े कर लिए। मुझे आज भी याद है , स्व. मिश्र के साथ , दो-घंटे की वह मुलाकात । क्या तेज था उस व्यक्ति में ? पूरी दुनिया का राजनीतिक-सामाजिक इतिहास उनकी जुबान पर था। पत्रकारिता के कॉरियर में आज तक किसी दूसरे राजनेता ने मुझे इतनी वैचारिक शीतलता प्रदान नहीं की। पत्रकारीय जिज्ञाशा को संतुष्ट करना किसी भी नेता के लिए आसान नहीं होता, लेकिन स्व. मिश्र की बात करने की यह पहली शर्त थीकि वे जबतक आपको संतुष्ट नहीं कर देंगे उठेंगे नहीं ।आज सोचता हूं तो लगता है कि मिश्र ऐसा इसलिए कर पाते थे क्योंकि सच से घबराते नहीं थे और राजनीति को समाज- सेवा मानते थे। इसलिए उन्हें बात को छिपाने की आवश्यकता नहीं होती थी।
शहर में हमेशा पैदल चलने वाले देव नारायण मिश्र (हमेशा सौ-दो- सौ मुकदमा लड़ने वाले मिश्र के पास कोई गाड़ी नहीं थी) निर्भिकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने पूर्व केंद्रीय मंत्री तस्लीमुद्दीन की लाख धमकी के आगे कभी घूटने नहीं टेके। वे तस्लीमुद्दीन समेत इलाके के कई दुर्दांत अपराधियों के खिलाफ सरकारी वकील थे।
लेकिन पिछले दिनों उन्हें गोली मार दी गयी। नीतीश कुमार के तथाकथित सुशासन राज में एक प्रतिष्ठित राजनेता और नामी वकील की हत्या कर दी गयी, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेगा। पांच दिन बाद जब मुख्यमंत्री अररिया में सभा कर रहे थे तो लोगों ने उन्हें मिश्र हत्याकांड की बात बतायी। लेकिन मुख्यमंत्री ने कोई टिप्पणी नहीं की। इसलिए घटना को एक सप्ताह हो चली है, लेकिन पुलिस उनके हत्यारों की पहचान करने में असफल है। यह स्थिति तब है जब प्रदेश में भाजपा सत्तारुढ़ है। उनके चेले सैयद शाहनवाज हुसैन की पार्टी में तूती बोलती है, फिर भी पार्टी खामोश है। जिस दिन देव नारायण मिश्र को गोली मारी गयी हुसैन पार्टी कार्यकारिणी में मेनका गांधी से बहस कर रहे थे। शायद भाजपा को अब देव नारायण मिश्र जैसे नेताओं की आवश्यकता नहीं रही। इस बात को दूसरे तरीके से भी कहा जा सकता है कि पार्टी को अब किसी विचारधारा की भी आवश्यकता नहीं रही। पर समाज को हमेशा देव नारायण मिश्र जैसे लोगों की आवश्यकता रहेगी। यह बात उनके विरोधी भी कहते हैं और उनके कॉलेज के मित्र रहे मेरे पिताजी भी कहते हैं।
 

शनिवार, 20 जून 2009

हमारे गांवों की लोकोक्ति-1

कोशी अंचल में लोक कला की सदियों पुरानी परंपरा है। यहां की बोली लोकोक्ति, मुहावरा, चुटकलों और फकड़ों से भरी है। लेकिन दुर्भाग्य यह कि आंचलिक साहित्य की सतत उपेक्षा के कारण आज ये सदियों पुरानी लोकोक्तियां लुप्तप्राय हो गयी हैं। ये लोकोक्ति और फकड़े अपने आप में गहन दार्शनिक अर्थ रखते हैं और सदियों के जीवनानुभवों को समेटे हुए हैं। मैं इन्हें "हमारे गांवों की लोकोक्ति' कॉलम के जरिए आप लोगों के सामने लाने की कोशिश कर रहा हूं।
हम सुनर हमर कनिया सुनरी
बांकी सब बनरा- बनरी
(विश्लेषण- अहंकार और आत्मुग्ध लोगों की कुपित मानसिकता की व्याख्या। ऐसी मनोस्थिति का शिकार आदमी मानने लगता है कि पूरी दुनिया में या तो वह श्रेष्ठ है या फिर उनकी पत्नी बांकी लोग तो निरा मूर्ख हैं , बंदर और बंदरिया की तरह )
भेल ब्याह मोर करबअ कि
धिया छोड़ि कें लेबअ कि
(विश्लेषण- अवसरवादी लोगों की मानसिकता की व्याख्या। अवसरवादी आदमी काम निकल जाने के बाद उसी तरह मुख मोड़ लेता है जैसे बेटी की शादी के बाद थका हुआ बाप बेफिक्र होकर चैन की नींद सो जाता है और लड़के वालों की संभावित मांगों का अनुमान लगाकर खुद को आश्वासन देता है कि अब तो शादी हो गयी, अब तो मैं अपनी बेटी उन्हें दे चुका हूं। इसके अलावा और क्या दूंगा और वे लेना भी चाहेंगे तो क्या लेंगे ?)
 
 

गुरुवार, 18 जून 2009

यह क्या हो रहा है नेपाल में

(नेपाल के शहर धनकुट्टा में भारत विरोधी बैनर के साथ प्रदर्शनकारी, राष्ट्रीय सम्मान के खातिर मैंने भारत विरोधी अपमानजनक शब्दों को ब्लॉक कर दिया है)

वैसे तो पड़ोसी मुल्क नेपाल के साथ भारत के रिश्ते उसी दिन से खराब होने शुरू हो गये जिस दिन वहां माओवादी शक्तियां अस्तित्व में आयीं। इसकी नींव 1995 के आसपास पड़ी जो 2000 आते-आते सतह पर दिखाई देने लगी। माओवादी पार्टी के सरकार में शामिल होने के बाद इसमें क्रांतिकारी तेजी आयी। लेकिन हाल-फिलहाल तक माओवादियों के तमाम प्रयास के बावजूद आम नेपाली नागरिक के मन में भारत के प्रति नफरत की भावना न के बराबर थी। परंतु पिछले कुछ दिनों यह भावना अप्रत्याशित रूप से बदली है। वहां भारत विरोधी शक्तियां तेजी से आकार ले रही हैं जिनका एक ही मकसद है कि दोनों देशों के सदियों पुराने रिश्ते में किसी न किसी तरह नफरत का जहर घोलना। इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले पंद्रह-बीस दिनों में नेपाल के विभिन्न हिस्सों में एक दर्जन से ज्यादा भारत विरोधी रैलियां निकाली गयी हैं। इन रैलियों में भारत को विस्तारवादी से लेकर आक्रांता तक की संज्ञा दी जा रही है। नेपाल-भारत की सीमा पर तैनात भारतीय अर्धसैनिक बल, एसएसबी को रेपिस्ट तक कहा जा रहा है। और सबसे अचरज की बात यह है कि भारत विरोधी शक्तियों की इस मुहिम में नेपाल के मुख्यधारा के कुछ मीडिया और पत्रकार भी शामिल हो गये हैं। लेकिन प्रतिपराकाष्ठा देखिये कि भारतीय मीडिया में इस बात की कहीं कोई चर्चा तक नहीं है। यहां तक कि सीमाई इलाकों में पढ़े जाने वाले अखबारों में भी इस आशय की कोई खबर प्रकाशित नहीं हुई है।
भारत विरोधी शक्तियों का आरोप है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश से सटे नेपाल के डांग जिले में भारतीय अर्धसैनिक बल एसएसबी ने बड़े पैमाने पर नेपाली जमीन का अतिक्रमण किया है । उनका कहना है कि एसएसबी ने जिले के करीब छह हजार एकड़ नेपाली जमीन पर कब्जा जमा लिया है और वहां के लोगों को अपने घरों से बेघर कर दिया है। उनका यह भी आरोप है कि एसएसबी ने इलाके में कई नेपाली महिलाओं के साथ बलात्कार किया है। मामला यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि नेपाल के उच्चतम न्यायालय में इसे मुद्दा बनाकर एक जनहित याचिका भी दायर की गयी, जिस पर संज्ञान लेते हुए कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया है कि वह अविलंब मामले की उच्च स्तरीय जांच करें और भारत सरकार से बात करे। ये सब खबरें पिछले एक महीने से नेपाल के तमाम अखबारों और टेलीविजन चैनलों में चल रही हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि नेपाली लोगों के मन में भारत के प्रति कटुता फैल गयी है और वे भारत को संदेह की नजर से देखने लगे हैं।
मसले का सबसे हास्यास्पद पहलू यह है कि किसी भी नेपाली पत्रकार ने आजतक उन क्षेत्रों की न तो कोई तस्वीर छापी है और न ही किन्हीं भुक्तभोगी महिलाओं का बयान प्रसारित किया है। जब मैंने सच्चाई जानने के लिए बीरगंज और विरॉटनगर के अपने कुछ नेपाली पत्रकार मित्रों से बात की तो उनका कहना था कि सभी सुनी-सुनाई बातों के आधार पर खबर चला रहे हैं। बीरगंज के मित्र पत्रकार ने कहा, " मुझे नहीं लगता कि किसी पत्रकार ने डांग जिले तक पहुंचने का कष्ट किया है, वे काठमांडू में बैठकर खबर लिख-पढ़ रहे हैं और बड़े शहरों में हो रहे भारत विरोधी प्रदर्शनों की तस्वीर उतारकर जनता को परोस रहे हैं।'' दूसरी ओर नेपाल सरकार ने मामले की जांच के लिए जिस उच्च स्तरीय कमेटी को डांग जिले के प्रभावित स्थलों में भेजा था उन्होंने अपनी प्राथमिक रिपोर्ट में इन आरोपों का खंडन किया है और कहा है कि बलात्कार की कोई शिकायत अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इलाके में सबकुछ ठीक नहीं है। हाल के दिनों में वहां के लोगों ने पलायन किया है। यह सच बात है। कुछ जगहों से सीमाई पोस्ट (अधिकृत पिलर) गायब हो गयेहैं। यह समिति अपनी विस्तृत रिपोर्ट कुछ ही दिनों में सरकार को सौंपेगी। लेकिन इन्होंने जो प्राथमिक रिपोर्ट दी है उसे नेपाली मीडिया अंडरप्ले कर रहे हैं ।
पूरे प्रकरण पर अगर तटस्थ दृष्टि डालें, तो जो निष्कर्ष निकलते हैं वे काफी चिंताजनक है। दरअसल, एसएसबी को कुछ साल पहले भारत सरकार ने नेपाल-भारत सीमा की निगरानी के लिए तैनात किया था। लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, वहीं हुआ। इस बल ने भी तैनाती के शुरुआती वर्षों में तो काफी मुस्तैदी दिखाई, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतते गये वे निष्क्रिय होते गये। आज अगर नेपाल-भारत के बोर्डर एरिया में आप घूमें तो आपको हजारों ऐसे स्पाॅर्ट मिलेंगे जहां से हर दिन भारी मात्रा में तस्करी होती है। एसएसबी तस्करों से खुलेआम कमीशन ले रहे हैं। वे सीमापार आने-जाने वाले लोगों के लिए तरह-तरह के गैरकानूनी संहिता बनाते हैं। मसलन कभी कहा जाता है कि आप चावल तो इधर से उधर ले जा सकते हैं मगर नमक नहीं। कभी कहा जाता है कि दो बैग लेकर जा सकते हैं तो कभी कहा जाता है कि आप कोई भी समान लेकर इधर-उधर नहीं जा-आ सकते। शादी-विवाह के मौके पर वह बेवजह बारात-गाड़ियों को रोक देते हैं और भारी रकम वसूल कर उन्हें आने-जाने की इजाजत दे देते हैं। जबकि वे अपने मूल कर्त्तव्य को निभाने में असफल हैं।
सभी जानते हैं कि नेपाल सीमा से होकर भारत में बड़ी तादाद में हथियार आ रहे हैं। गांजा और अन्य मादक पदार्थों की तस्करी हो रही है। आइएसआइ और माओवादी इसमें लिप्त हैं। लेकिन एसएसबी इन्हें रोकने में नाकाम है। ऐसे में कहावत है न कि "खाली मन सैतान का', तो वे इन दिनों यही कर रहे हैं। बैरक और चेक पोस्ट से ज्यादा समय सीविलियन एरिया में व्यतीत करने में एसएसबी के जवान ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, जबकि उन्हें साफ-साफ ऐसी गतिविधियों में शामिल होने से मना किया गया है। सुपौल और अररिया जिले में तो मैंने एसएसबी को जिला प्रशासन के कार्य में बेवजह पैर अड़ाते देखा है। एक बार नहीं दर्जनों बार। उनकी इन कारगुजारिओं में जो कोई आड़े आता है उन्हें वे प्रताड़ित करने से नहीं चूकते। डांग में भी ऐसा ही कुछ हुआ है, जिसे भारत विरोधी शक्तियों ने तील से ताड़ बना दिया है, लेकिन एसएसबी के आला अधिकारी चुप हैं। वे कोई बयान नहीं दे रहे।
ऐसे में भारत सरकार की भूमिका बहुत अहम हो जाती है। इससे पहले कि भारत विरोधी शक्तियां भारत-नेपाल के रिश्ते में जानलेवा जहर घोल दे, भारत को पूरे मामले की उच्च स्तरीय जांच करानी चाहिए ताकि नेपाल के लोगों तक सच्चाई पहुंचेऔर उनका विश्वास कायम रहे । साथ ही एसएसबी को अनुशासनहीन होने से बचाने के लिए निगरानी एजेंसियों को कडा निर्देश देना चाहिए साथ ही दोषी के ख़िलाफ़ तुंरत कारवाई करनी चाहिए ।
 

शुक्रवार, 12 जून 2009

नदी की लाश / (एक लघु कथा )

सात दिनों तक सौ मन सड़र-धुमन जलाया गया । कई क्विंटल चंदन की लकड़ी जलायी गयी । धूप और अगरबत्ती से वह घाट धुआं-धुआं रहा। लेकिन अफसोस ! नदी से बदबू नहीं गयी। लोग हताश होने लगे। वे एक-दूसरे को पूछने लगे कि आखिर नदी को हुआ क्या है? इसका पानी काला क्यों हो गया है? यह इतना बदबू क्यों दे रही है? नामी पंडित बुलाये गये। विख्यात पुजारी आये। पर्यावरण प्रेमियों और जल वैज्ञानिकों ने भी तशरीफ लाया । और लंबी बहस-मुबाहिसों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि यह नदी जो कभी जीवनदायिनी थी अब अत्यधिक प्रदूषित हो गयी है। इसलिए इसके जल काले और बदबूदार हो गये हैं।
इसके पश्चात एकमत से फैसला लिया गया कि नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार से अपील की जायेगी। "नदी मुक्ति मोर्चा' और "नदी बचाओ आंदोलन' जैसे संगठन बनाये जायेंगे। अगर सरकार नहीं सुनी तो बड़ा आंदोलन छेड़ा जायेगा। इसके बाद देर रात तक नदी-चिंतकों की पार्टी-शार्टी चलती रही। उनकी सूची में एक और नदी का नाम जुड़ गया था। इस बात से वे फूले नहीं समा रहे थेऔर जाम पर जाम छलकाये जा रहे थे।
जबकि उधर घाट पर सोये हुए भिखारी ने मध्य रात्रि में एक सपना देखा। उसके सपने में नदी आयी और हंसने लगी। नदी हंसती जा रही थी, हंसती जा रही थी, हंसती ही जा रही थी। इससे भिखारी भयभीत हो गया। वह हाथ जोड़कर नदी के सामने नतमस्तक हो गया और बोला-
"माते, आप इस तरह लगातार हंसती ही क्यों जा रही हो, मेरे से कोई भूल हो गयी है क्या ?'
नदी बोली- " मैं तुम पर नहीं, लोगों की मुर्खता पर हंस रही हूं । वे मुझे साफ करने की बात कर रहे हैं और बदबू से छुटकारा पाना चाहते हैं ? लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि लाश को लाख साफ कर लो , इत्र-धुमन दिखा दो, वह कभी साफ हो सकती है क्या ? उसकी बदबू खत्म हो सकती है क्या?'
भिखारी ने कहा- "माते, यह आप क्या कह रही हैं ?'
नदी ने कहा- "सच कह रही हूं । मैं मर चुकी हूं। अब घाटों से होकर मैं नहीं, मेरी लाश बह रही है।'
सुबह जब भिखारी की नींद खुली,तो वह देर तक यह सोचते रहा कि आखिर नदी माता उसके सपने में ही क्यों आयी? न तो वह धुप-अगरबत्ती जलाने वालों में शामिल था और न ही नदी चिंतकों की बैठक और रात वाली पार्टी में शरीक हुआ था। इस बात को लेकर भिखारी दिन भर परेशान रहा, फिर भी वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका।

बुधवार, 10 जून 2009

थोड़ा गोबर लगाओ थोड़ी माटी डालो

दहाये हुए देस का दर्द-47
कुसहा हादसा को हुए नौ महीने बीत चुके हैं, लेकिन अभी तक दोषियों की सिनाख्त नहीं हो पायी है। बिहार सरकार ने इस हादसे की जांच के लिए और दोषी अधिकारियों की पहचान के लिए एक जांच कमीशन बैठाया था। जांच कमीशन ने नौ महीने में क्या कार्रवाई की ? किन्हीं को नहीं मालूम। जबकि कुसहा हादसा खुली हुई किताब की तरह है। कोशी इलाके के आम लोग तक इस हादसे के दोषियों को सीधे चिह्नित कर रहे हैं, लेकिन कमीशन को दोषी दिखाई नहीं दे रहे। सच यह है कि जिन विभागों और अधिकारियों की लापरवाही के कारण कुसहा में बांध टूटा उन्हें अंधेरी रात में भी पकड़ा जा सकता है। उनकी लापरवाही और कर्त्तव्यहीनता के प्रमाण दूर से ही दिखाई पड़ते हैं। लेकिन जांच आयोग सूक्ष्मदर्शी लेकर उनकी तलाश कर रहा हैफिर भी उन्हें कुछ नजर नहीं आ रहा। "साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल'' से जुड़े हिमांशु ठक्कर ने पिछले दिनों आयोग को एक पत्र लिखा है। इस पत्र में लापरवाह विभागों और अधिकारियों को प्रमाण के साथ चिह्नित किया गया है। इस पत्र को पढ़ने के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अधिकारियों ने कितनी निडरता से कर्त्तव्यहीनता की इंतिहा कर दी। लेकिन जांच आयोग ? मुझे कुछ शब्द मिल रहे हैं- दृष्टिदोष, मोतियाबिंद, लीपापोती.... भारत में जांच आयोग गोबर-माटी का ही दूसरा नाम तो नहीं ??
(हिमांशु ठक्कर के दस्ताबेजी पत्र को पढ़ने के लिए नीचे के मैटर के बॉडी पर डबल क्लिक कीजिए।)

ठीक किया जो छोटे के मुंह नहीं लगा

वातानुकूलित कार में बैठे
उस रइश कुत्ते पर
आवारा कुत्ते बहुत हैरान हुए
और कार के पीछे दूर तक भागते रहे, भौंकते रहे
कार में बैठी वह छोटी लड़की
' डॉली ' की ऐसी इंसल्टी पर बहुत परेशान हो गयी
आवारा कुत्ते भौंकते रहे
लेकिन "डॉली ' ने मुंह नहीं खोला
++
घर पहुंचकर लड़की ने डैडी से पूछा
डैडी- डैडी ??
अपना "डॉली ' ऐसा क्यों है ?
वे भौंकते रहे
लेकिन इसने दूम दबा लिया
डैडी ने कहा-
" बेटा, ' डॉली ' ने ठीक किया जो छोटे के मुंह नहीं लगा "
++
दो सप्ताह बाद
आज, वह छोटी लड़की बहुत खुश थी
आज
मोहल्ले में यत्र-तत्र आवारा कुत्तों की लाश पड़ी थी

शनिवार, 6 जून 2009

गरीब का गम और गांजा का दम

दहाये हुए देस का दर्द-46
नशा, बिपत्ति और दरिद्रता में शायद कोई-न-कोई रिश्ता है। गरीबी और त्रासदी जहां कहीं जाती हैं, नशा व व्यसन को संग कर लेती हैं। शायद इसलिए कि गरीबी और त्रासदी को मौत व मातम से गहरा लगाव है। सदियों-सदी से वे एक-दूसरे के सहोदर बने हुए हैं। अगर मौत व मातम न रहे, तो दरिद्रता व बिपत्ति कितनी बदसूरत लगेगी। लोग गरीबों के रंग-ढ़ंग पर शंका करने लगेंगेऔर फिर गरीबों के कारोबारियों का क्या होगा ? शायद इसलिए , नशा रोग का सबसे प्रिय दोस्त है और रोग मौत का परम-मीत। शायद इसलिए गरीबी व बिपत्ति का जी जब कुपोषण, आत्महत्या, पलायन आदि से नहीं भरता, तो वे अपने साथ गांजा, हड़िया, ताड़ी, भंग आदि को ले आती हैं।
पिछले दिनों कोशी के उजड़े दयारों से लौटने के बाद मेरे मन में ऐसे ख्याल बार-बार आते रहे। हालांकि मैं जानता हूं कि मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री मेरे इस गंवार विचार को सुनकर चौअन्नी निपोड़ लेंगे। विद्वानों की तो छोड़िये, वे किन्हीं पर हंस सकते हैं, किन्हीं को व्यंग्य-पात्र बना सकते हैं। उनके सात खून माफ हैं। लेकिन मुझे शक है कि कोई भी समझदार आदमी मेरे इस ठेठ मत से सहमत होंगे।
खैर, मैं भी मान लेता हूं। अक्सर सन्निपात का शिकार आदमी बकने लगता है। लेकिन डॉक्टर लोग भी कहते हैं कि कभी-कभी सन्निपातियों के बकवास में ही उसके इलाज के सूत्र छिपे होते हैं, इसलिए उनकी बातों को माने या न माने, लेकिन सुने जरूर। तो आप भी मेरे साथ चलिए कोशी के उन गांवों में, जहां आजकल भनसा घरों (भोजन बनाने वाले घर) से चूल्हा का धुआं भले नहीं उठे, लेकिन हर घर से गांजे के धुएं उठ रहे हैं, हर पहर और हर तरफ। घर में अन्न नहीं है, लेकिन गांजा है। घर में बर्त्तन नहीं है, लेकिन चीलम (गांजा पीने वाला, मिट्टी की डिबिया)है। अजी घर भी क्या है, बांस-फूस से बनी सिर छिपाने की झोपड़ी है। सुपौल के प्रतापगंज ब्लॉक के तिलाठी गांव का है मुन्नीलाल। तिलाठी गांव पिछली बाढ़ में मटियामेट हो गया था। कुछ मुन्नीलाल की सुन लीजिए।
"2100 रुपये दिए थे नीतीश बाबू के बीडीओ-कलस्तर ने... पांच सौ तो पंचायत सेवक जोधन जादव खा गिया, बचा 1600 । तीन सौ टका में बुढ़िया के नुआ (साड़ी) खरीदा, बचा 1300। सौ टका में एक मन मड़ुआ खरीदा, बचा 1200। अपने लिए एक ठो लूंगी खरीदा और एक ठो गंजी जिसमें 100 टका खरिच हो गया। बचा 1100 सौ। सिघेंश्वर भगवान की कसम, अब ई ग्यारह सौ में पांच मास (माह)से टिके हैं। '
"अगला खेप कब मिलेगा हो जोधन ?'
"जब मिलेगा तो बता देंगे... वैसे सब बेर तुमको ही मिलेगा क्या ? वोट दिया था तीर में ???'
"नहीं ...'
" किसको दिया था रे, उ सरवा हाथ छाप को कि बंगला छाप को ? '
" इ तो हम आपको नहीं बतायेंगे... '
"... तो घड़ीघंट बजाओ आउर खूब गांजा फूंको, साला ! नेपाल का सब गांजा कोशी में भर गिया है...'
" जब पेट में दाना नहीं रहेगा न, तब तुम भी गांजे को याद करेगा। एक सोंट खैंच लेते हैं तो न कल्लो (खाना)का फिकर न जलखई (नास्ता) के... हेंहेहें... '
जोधन ने ठीक कहा। नेपाल का सारा गांजा कोशी में पहुंच गया है। सुपौल, अररिया, मधेपुरा और सहरसा जिले के हर छोटे बाजार-हाट में आजकल गांजा धड़ल्ले से बिक रहे हैं। लोग कहते हैं कि बिपत्ति में यह बड़ा सहायक सिद्ध हो रहा है। त्रासदी के मारे लोग आजकल गांजा पीकर ही दिन बिता रहे हैं। लेकिन पुलिस-थाने वालों को कोई खबर नहीं। वे पहले तो इस मुद्दे पर कुछ बोलते नहीं। बहुत कुरेदने पर भड़क उठते हैं। प्रतापगंज के दारोगा ने मुझसे कहा- "आप पत्रकार लोग न किसी चीज को लेकर बैठ जाते हैं। अरे इसमें नया क्या है ? घर में खाने के लिए कुछ नहीं है, तो गांजा और भंग नहीं खाये, तो क्या बालू फांके ??? फिर संयत हो गये, बोले- छापियेगा नहीं, वैसे हमलोग पूरी कार्रवाई कर रहे हैं...'
तिलाठी से आगे बढ़ा, तो चुन्नी पहुंचा। वही नजारा। उधमपुर पहुंचा, वही दृश्य। जहां कहीं धुआं, वहां-वहां गांजाका दम। जहां कहीं भी दरिद्रता, वहां-वहां गांजाका सोंट । छत्तापुर, भीमपुर, जीवछपुर... गांजा, गांजा, गांजा... ये सारे गांव पिछले साल कोशी में दहा गये थे, अब इन गांवों में पानी का राज नहीं है। आजकल इन गांवों में गांजा राज हो गया है। इन गांवों की हवा में धुआं है और जमीन पर बालू। और इन दोनों के बीच इंसान कहीं खो गया है।
... तो अब आप ही बताइए ऐसी जगहों में चक्कर लगाने के बाद आदमी सही रह पायेगा। वो या तो बकवास करेगा या फ़िर अजीब-अजीब विचार से घिरेगा । चाहे कोई माने या कोई नहीं माने! मानो तो देव नहीं तो पत्थर ....

मंगलवार, 2 जून 2009

तू आखिरी आराम कर

इंकलाब से इत्तेफाक रख
दर- फतह को सब्र कर
बढ़ रही है आग
बस, थोड़ा इंतजार कर।
हठ अपने रद्द कर
अब भी पाप जब्त कर
हर किला दहायेगा
उफन रहा जनता का नद
घास को न फूस कर
बस्ती को न ठूठ कर
धुआं उठा है धौड़ा में
तू आखिरी आराम कर ।