शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

बचे हुए लोग /एक लघु कथा

दहाये हुए देस का दर्द-38
दहाये हुए देश के उस हाट में तीन लोगों के चेहरे ही दमक रहे थे। भीड़ में ज्यादातर लोगों की आंखें धंसी हुई थी, आधा वदन नंगा था और बटुए में चंद रेजगारी के सिवा कुछ भी नहीं था। कुछ लोग नमक खरीद रहे थे और कुछ दिए जलाने के लिए मिट्टी का तेल। लेकिन उस भीड़ में तीन लोगों के चेहरे दूर से ही दमक रहे थे। वे तीनों चमचमाती तवेरा जीप से हाट पहुंचे। उतरकर हाट के एक कोने की ओर चले गये, जो खाली था। अमूमन यहां गोस्त का बाजार लगता था, लेकिन पिछले कुछ महीनों से यह बंद था। कसाईयों का कहना था कि बाढ़ ने धंधा चौपट कर दिया,न खस्सी है न खवैया (खाने वाले)। चूंकि वे वर्षों से यहां दुकान लगाने के आदि थे, इसलिए हाट की शाम इसी कोने में निठल्ला बैठकर बिताते थे। उन तीनों ने एक कसाई से बात की। एक खस्सी का आर्डर दिया। गोस्त पैक करवाया और गाड़ी में बैठ गये। लेकिन कुछ दूरी पर जाने के बाद उनकी जीप सड़क के एक कटान में फंस गयी। उन्हें बगल के एक किसान के घर में रात बितानी पड़ी। सुबह में लोगों ने किसान से पूछा वे तीनों कौन थे, तो पता चला- एक कोसी प्रोजेक्ट का इंजीनियर था, एक इसी प्रोजेक्ट में काम करने वाला ठेकेदार था और एक विधायक का भतीजा था।

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