सोमवार, 24 नवंबर 2008

साधारण डब्बे की असाधारण बात (दूसरी कड़ी)

दहाये हुए देस का दर्द 22
जैसे-जैसे ट्रेन खुलने का वक्त नजदीक आते जा रहा था वैसे-वैसे डब्बे का जन घनत्व भी बढ़ता जा रहा था। रेलवे के लिखित प्रावधानों के मुताबिक छोटी लाइन की गाड़ियों के एक डब्बे में अधिकतम 64 लागों के बैठने की व्यवस्था होती है, लेकिन अगर मेरा अनुमान सही है तो उस डब्बे में गाड़ी खुलने से आधे घंटे पहले ही लगभग 300-350 यात्री प्रवेश कर चुके होंगे। लोग आ रहे थे, लोग जा रहे थे, लेकिन बहस चालू थी। लोगों के आवागमन और यात्रानीत शोर के बावजूद बहस धीरे-धीरे शिशु अवस्था से बाल्यावस्था में पहुंच चुकी थी। हर पल इसमें नये-नये प्रतिभागी शामिल हो रहे थे। कोई जोरदार स्वर के साथ, तो कोई दिललगी के अंदाज में ।
थोड़े पढ़े-लिखे युवक नहीं पढ़े-लिखे वाले के सवाल का जवाब दे रहा था। उसे पता चल चुका था कि बहस का कमान अब उसके हाथ में है, इसलिए वह अब इसे अपने मनोवांछित दिशा की ओर आसानी से ले जा सकता है। किसी किस्सागो की शैली में उसने कहना शुरू किया।
फकड़ा (लोकोक्ति) नहीं सुने हैं- खेत खाय गदहा मार खाये जोलहा ! यही हुआ है - कोशी मामले में। एक ठो कहानी सुनाते हैं। 25 साल पहले की कहानी है। अररिया में कोशी प्रोजेक्ट के एक इंजीनियर की पत्नी के साथ एक ठो ठेकेदार ने बलात्कार किया था। ऊ भी इंजीनियर की नजर के सामने, जैसे कि फिलिम-विलिम में होता है। ... जानते हैं उस इंजीनियर का कसूर क्या था ?
क्या-क्या-क्या ???? (एक दर्जन क्या एक साथ गुंज उठा)
... उसने ठेकेदार के फर्जी काम पर दस्तखत नहीं किया, इसलिए।
ओहो ! फिर ????
फिर क्या ? इंजीनियर विक्षिप्त हो गया। ठेकेदार को फलना (कांग्रेस के एक बड़े राजनेता का नाम लेकर, जो आज जिंदा नहीं हैं) का आर्शीवाद प्राप्त था। उसका कुछ नहीं बिगड़ना था, नहीं बिगड़ा।
कैसे नहीं बिगड़ा? हम बताते हैं, सुनिये।(तंबाकू बनाते खामोश बैठे एक बृद्ध का जोरदार हस्तक्षेप) भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं हैै। उसका निसाफ (इंसाफ) हो गिया। आजकल उ ठेकेदार के दोनों बेटा टका-टका के लिए मोहताज है। ... और हम तो सुने हैं कि उ ठेकेदार (नाम लेकर) को बाद में कुष्ठ फूट गिया था।।। आउर देखते नहीं है कि कभी एक छत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी अभी कैसे एक कौर घास के लिए डिड़िया रही है। खोप सहित कबुतराई नमः हो गिया कांग्रेस का । कहवी (कहावत) नहीं सुने हैं- देव नै मारे डांग से देत कुपंथ चढ़ाये...
हं । हं। हं। एक साथ कई लोगों के सामूहिक स्वर - ई गप ते सहिये है...
(हियां साइकिल क्यों टांग रहे हैं ? इहह ! अपनो चढ़ियेगा आउर साइकिलो चढ़ायिगा !! सुरेनमा रे होहोहो , सुरेनमा रे होहोहो, मालिक काका होहोहो, आइब जा-आइब जा। एहि डिब्बा में छी रे ??? हम ताकि-ताकि कें थैक गेलयो, सरवा। एई भाई ? इंजन लग रहा है क्या ? ... लग तो रहा है।।।)
पढ़ा-लिखा भाई ने फिर कहना चालू किया। तो सुन लिए न। कोशी की कहानी बड़ी गजब है भाई। बढ़ियां हुआ कि बीरपुर शहर के नामोनिशान मीट गिया, इस बाढ़ में। ससुरी शहर कैसे बना ? जानते हैं?? कोशी को लूटकर। कोशी लूट का आधा से ज्यादा पैसा इसी शहर के लोगों ने लूटा। पैन (पानी) के धन था, पैन में बह गिया, हें-हें-हें । ई सरकार तें मुफत में बलि के बकरा बैन गिया है।
(धम-धम-धड़ाम !!! ... लगता है इंजन लग रहा है। टेम क्या हुआ भाई साहेब ? छह बज रहा है। अभी तो इंजने लगा है। फिर प्लैटफार्म पर जायेगा, तब खुलेगा, लगता है 11 बजे से पहिले सहरसा नहीं पहुंच पायेंगे)
ऊ कैसे ? (कम पढ़े-लिखे वाले का सवाल)
वही तो कह रहे हैं। सुनिये न (पढ़े-लिखे वाले युवक की नजर में अब इस युवक का वजन बहुत कम हो चुका था, वह उसके लिए अब हेतु-सूत्र का वह दर्जा भी खो चुका था जो उसने एक घंटे पहले प्राप्त किया था। क्योंकि अब यह युवक सीधे लोगों को संबोधित करने के स्तर पर पहुंच चुका था)।
राजद के सरकार में एक जल मंत्री (जल संसाधन मंत्री) हुआ करते थे। आज भी राजद के नेता हैं। उसने तो अपने मंत्रिकाल में लगातार दस बरस तक कोशी के साथ रेप किया। हर साल तटबंध की मरम्मत के लिए केंद्र से करोड़ों रुपया आया, लेकिन एक छिट्टा (टोकरी) मिट्टी तक नहीं डाला इन लोगों ने बांध पर। कोशी गोंगिया रही थी और मंत्री और इंजीनियर-ओवरसियर पटना में सोये रहे। ई सरकार तो बहुत काम कर रही है। सैंकड़ों शिविर लगाये गये हैं। लोगों के भोजन-पानी का पक्का इंतजाम किया गया है।
गलत-गलत-गलत, साफे गलत ।।। (एक साथ कई लोगों का विरोध)
पहली बार बहस में कुछ महिलाओं का हस्तक्षेप ?
याप ही देखे हैं। शिवर में भोजन-पैनि मिल रहा है। सब झूठे कह रहा है। दिन-रात में एक बेर पैन वाला खिचड़ी देता था। उहो दो करछुल। बस। कपड़ा-लत्ता तो दिया भी नहीं। खाली भाषणे देते रह गिया। हम लोगों को तो एक ठो प्लास्टिक के टुकड़ों नै मिला। हूं, कहते हैं - भोजन-पैनि का पक्का इंजाम है। हूंअअअ...
नहीं, हम कह रहे हैं कि..
क्या कहियेगा? आपका घअर-द्वार भसियाता तब न समझते...
ठीके तो कह रही है, भाई साहेब, हमहूं शिविरे से आ रहे हैं, लूट मचल है
लगता है इहो भाई साहेब खूब दाबे हैं, ई बाढ़ के मिसरी ! हें-हें हें...
क्या बोल रहे हैं भाई साहेब? जबान पर लगाम दीजिए ?
कुछ तटस्थ यात्रियों का हस्तक्षेप। अरे झगड़ा नहीं कीजिए। कोशी तो बरबाद कर ही दी। अब सिर-फुटोव्वल से का फाइदा।
देखिये जे मने में आ रहा से बोल दे रहे हैं ...
माहौल कुछ-कुछ भारतीय संसद सरीखा हो गया था। सारे स्वर अस्पष्ट हो गये थे। शब्दों का घालमेल हो गया थाऔर कौन क्या बोल रहा था यह अनुमान लगान मुश्किल हो गया था।
लेकिन पांच मिनट बाद ही फिर सबकुछ सामान्य भी हो गया। भारतीय सामान्यतया के सिद्धांत के अनुरूप । सभी लोग अपनी जगह पर कुछ इत्मीनान से बैठने लगे क्योंकि गाड़ी अब प्लैटफार्म की ओर चलने लगी थी। मेरे बगल में बैठे उस पंजाबी लड़का ने हमसे डरते-सहमते पूछा- बाढ़ इस्पीसल है, टिकटों मांगेगा, सर ??
मैंने कहा- नहीं, तो वह थोड़ा इत्मीनान हो गया। शायद वह फिर से अपने परिवार के पास चला गया था। क्योंकि पिछले दो-ढ़ाई घंटों मैं यह जान गया था कि इस लड़के का सिर्फ शरीर ट्रेन में है, उसका मन कहीं और है। वह बाढ़ से पीड़ित था। इसलिए बहस का हिस्सा नहीं था।
(पान-बीड़-सिगरेट! शिखर, तिरंगा, राजदरबार !! हेरे छोड़ा- सिंगल (सिग्नल) हुआ है रे? नहीं।। )
(आगे की बात अगली कड़ी में जारी रहेगी)

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