बुधवार, 5 नवंबर 2008

खड़ा-खड़ा हमने सोचा

दहाये हुए देस का दर्द-18
कभी
राजधानी एक्सप्रेस की भागती हुई अपारदर्शक खिड़की को देखते हुए
कभी
राजधानी की सड़कों से गुजरते शायरन- काफिलों को निहारते हुए
और कभी
सहरसा-खगड़िया रेलवे लाइन्स के जनरल बॉगी में लटकते नदीमारों को सुनते हुए
हमने सोचा
कि इस दुनिया में हर कोई बाढ़-पीड़ित है
कि जैसे हर आदमी के सिर पर कोई-न-कोई कोशी लटकी हुई है
अभी
तीस-पैंतीस लाख लोगों की साठ-सत्तर लाख आखों में
अभी
दो-तीन पार्टियों के चुनाव-चिंतन बैठकों में
हमने देखा
कि कुछ खोने का डर कितना भयानक होता है
कि पैरों के नीचे की जमीन अगर खिसक जाय
तो जैसे कायनात ही खिसक जाती है
और आज सुबह
राहत-शिविरों को दूर से निहारते हुए
उगते प्रभाकर को अर्घ्य देकर लौटते हुए
हमने जाना
कि अब यह सूर्य भी सबका नहीं रहा
कि यह सुबह कितना अंधियारा है

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