शनिवार, 1 नवंबर 2008

राख में दब जायेंगे आग के सवाल

दिलों को जलाकर अलाव तापना भारत के राजनेताओं का सबसे पसंदीदा शगल है। बांटो और वोट बटोरो हमारे राजनीतिक संस्कार बन गये हैं। इस देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टी बांटो और वोट लो के मंच पर नाचकर वोट रूपी वाहवाही बटोरती रही है। आज अगर राज ठाकरे नाच रहे हैं, तो इसमें हैरत की कौन सी बात है ? सच तो यह है कि राज ठाकरे भारतीय राजनीतिक संस्कृति के बांटो और राज करो के अचूक हथियार की सर्वसत्ता का ही उपासना कर रहे हैं, जिसे पूज-पूजकर कई भ्रष्ट, अकुशल और क्षुद्र नेताओं ने सड़क से संसद तक की सफल यात्रा की एवं राजभोग का परमानन्द प्राप्त किया।
राज ठाकरे को नेता बनने की जल्दी है। उसे अविलंब महाराष्ट्र की सर्वोच्च् कुर्सी चाहिए। समय कम और लक्ष्य बड़ा। समाज सेवा के लंबे, श्रमसाध्य और घुमावदार रास्ते पर आजकल चलता कौन है। हर किसी को अपनी चिंता है, अपने मंजिल तक पहुंचने की हड़बड़ी है। चाहे इस शार्ट-कट और विध्वंसक राजनीति के एवज में देश और समाज हलाल हो जाय तो जाय। इसलिए राज ठाकरे ने भी शार्ट-कट रास्ता अख्तियार किया है। ठीक वैसे ही जैसे कभी उसके चाचा ने किया था। महाजनो येन गता, सा पंथा की सीख उसका मार्गदर्शन कर रहा है। वह पूरे तन-मन-धन से अपना कर्म करते जा रहा है। उनकी आंख सिर्फ अपने लक्ष्य पर है। लेकिन इधर उत्तर भारत में कोहराम मचा हुआ है। कोई उसे मानसिक रूप से विक्षिप्त कर रहा है तो कोई देशद्रोही। जबकि सभी जानते हैं कि राज उन्हीं लोगों के बताये रास्ते का अनुसरण कर रहे हैं।
राज ठाकरे की बात समझ में आती है। वह अग्नि-उपासक हैं और भस्म रमाकर महाराष्ट्र के महायोगी बनने की पुरुषार्थ कर रहे हैं। लेकिन राज के इस देशतोड़-यग को लेकर बिहार के झंडावरदार बने लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, शरद यादव और एवं हिन्दी पट्टी के तथाकथित हितैषी नेता मुलायम सिंह यादव, अमर सिंह, मायावती की प्रतिक्रिया समझ में नहीं आती। ये तो यही बात हो गयी कि डेगची केतली से कहे तुम्हारी पेंदी हमसे ज्यादा काली। बिहार और उत्तर प्रदेश के समाज को जाति में बांटकर राजनीति के हाशिये से मुख्य पृष्ठ पर छलांग लगाने वाले नेता यह क्यों भूल जाते हैं कि जातिवाद, धर्मवाद और क्षेत्रवाद अलग-अलग खेल नहीं है। ये सभी बांटो और वोट लो खेल के ही पर्यायवाची शब्द हैं।
वास्तव में राज ठाकरे को मानसिक रूप से विक्षिप्त कहने वाले शायद अपना चेहरा छिपाने की ही कोशिश कर रहे हैं। राज द्वारा लगायी गयी आग पर हर पार्टी बस बचकर निकलने के फिराक में हैं। ये नेता और इनकी पार्टियां क्षेत्रीयता की इस आग से उठ रहे उन सवालों का जवाब भी नहीं देना चाहते जो आज आम बिहारी को रोजी-रोटी के लिए दर-दर की ठोकर खाने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
राज के राजद्रोह की हरकत के कारण देश के संघीय ढांचों को जो चोट पहुंच रहा है और आने वाले दिनों में जो चोट लगेंगे उसकी तो शायद किन्हीं नेता को आभास भी नहीं है। अगर ऐसा होता तो अंग्रेजों को ठिकाने लगाने वाला यह देश राज के सामने यूं लाचार नहीं दिखता। लेकिन खासकर बिहार के नेताओं की संवेदनशून्यता पर तरसने का मन करता है। बिहार के नेताओं को मालूम होना चाहिए कि पिछले वर्षों में इस राज्य की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से मनीआर्डर अर्थव्यवस्था बनकर रह गयी है। उत्तर बिहार की लगभग आधी ग्रामीण आबादी आज अन्य राज्यों से भेजे गये मनीआर्डर पर ही अपना गुजारा करती है। महाराष्ट्र से अगर बिहारी निकल भी जायें तो उनका गुजारा हो जायेगा, लेकिन अगर पंजाब, हरियाण, गुजरात बिहारियों के लिए बंद हो गये तो क्या होगा, इसका अंदाजा तक नहीं लगाया जा सकता। राज ने देश के संघीय ़प्रणाली और संविधान पर जो प्रश्न चिह्न खड़ा किया है, उसका जवाब देने की जिम्मेदारी पूरे देश के नेताओं की है। बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के लोगों की यह अकेली जिम्मेदारी नहीं है। लेकिन बिहार के नेताओं की यह जिम्मेदारी जरूर है कि वह अपने चूल्हे की फिक्र करें। लेकिन ऐसी इच्छाशक्ति बिहारी नेताओं में नहीं दिखती। जैसा कि हमेशा से होता आ रहा है वही होगा। कई मासूम और श्रमजीवी लोग इस आग में जला दिये जायेंगे, देश और समाज पहले से ज्यादा कृशकाय हो जायेगा और बचे रह जायेंगे राख और उसमें दबा दिये गये उपरोक्त सवाल। भस्मांकुरण में अंधविश्वास रखने वाला यह देश बार-बार जलता और बूझता रहेगा। अगर यह सच नहीं होता तो कभी बर्मा से अफगानिस्तान तक का भारत आज आधे कश्मीर और एक चौथाई अरुणांचल प्रदेश गंवाकर भी यूं चैन से बैठा नहीं होता।