गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

गिद्धों और चीलों की लड़ाई

कोशी बाराज १९८८ में ही अपना कार्यकाल पूरा कर चुका है लेकिन अभी भी इससे काम लिया जा रहा है
दहाये हुए देस का दर्द-13
रंजीत ।


कोशी तटबंध हादसा की जांच के लिए बिहार सरकार ने उच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश की अध्यक्षता में जांच आयोग गठित कर दी है। यह आयोग अपने हिसाब से हादसा की जांच करेगा और सरकार को अपनी रिपोर्ट देगा । फिर क्या होगा ? कुछ राजनीतिक दल रिपोर्ट की निष्पक्षता पर उंगली उठायेंगे और कुछ इसके समर्थन में ताल ठोकने लगेंगे। सप्ताह, दो सप्ताह तक जमकर बयानबाजी होगी, फिर सबकुछ फ्रिज हो जायेगा। दोषी अधिकारी, नेता और ठेकेदारों की मूंछें पूर्व की तरह हवा में लहराती रहेंगी। इस तरह कुछ साल गुजर जायेंगे और फिर आने वाले वर्षों में कोशी की कुसहा-2, कुसहा-3, कुसहा-4 की अनगिनत प्रलय-गाथाएं मंचित होंती रहेंगी और जिंदगियां उजड़ती रहेंगी।
यह किसी मनहूस ज्योतिष का भविष्यगणना नहीं है। यह तथ्य है, जिसे सरकार जानबूझकर झूठलाना चाहती है। क्योंकि इस तथ्य में कुसहा-1 की सच्चाई छिपी हुई है। अगर इस सच्चाई पर से पर्दा उठ गया तो भ्रष्टाचार पर लगे हुकूमती चिलमनों में बड़े-बड़े छेद हो जायेंगे और सैकड़ों अभियंताओं, दर्जनों आइएएस, आइपीएस, दर्जनों ठेकेदारों और अनगिनत विधायक-मंत्रियों के कुरूप और आदमखोर चेहरे नमूदार हो जायेंगे।
वास्तव में कुसहा हादसा ने भ्रष्ट भारतीय तंत्र की पोल खोल दी है। कुसहा (नेपाल) में कोशी तटबंध के टूटने में भ्रष्टाचारियों के आपसी कलह बहुत बड़ा कारण रहा है। कोशी बराज इलाके के लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और मजदूरों से बात करने के बात यह पहलू मेरे सामने आया है।
दरअसल, भारतीय अधिकारियों ने कोशी के नाम पर पिछले चार दशकों में अरबों रुपये का घोटाला किया है। हर वर्ष तटबंध की मरम्मत, रखरखाव और नदी की सफाई के नाम पर करोड़ों रुपये की लूट होती है। मरम्मत और रखरखाव की राशि का एक बड़ा हिस्सा नेपाल की सीमाओं के अंदर की परियोजनाओं के नाम पर लूटी जाती रही है। दस वर्ष पहले तक नेपाल के लोगों को इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि कहां क्या हो रहा है, क्योंकि वहां सामाजिक जागरुकता नगण्य थी। लेकिन नेपाल में माओवाद के उदय के बाद स्थिति बदलने लगी। बिल्ली (कोशी माफियाओं) के दुर्भाग्य से राजतंत्री सीका टूट गया। नये नेपाली बल-समूहों को पता चल चुका था कि उनकी सीमा के अंदर की कोशी-परियोजनाओं के नाम पर भारतीय अधिकारी-नेता-ठेकेदार करोड़ों रुपये लूट रहे हैं, लेकिन उन्हें कुछ नहीं दिया जा रहा है। यानी जिसके घर में भोज उसी की थाली में भात नहीं ! तटबंधों की मरम्मत के नाम पर नेपाल के पहाड़ों और जंगलों से लाये गये बोल्डर, बालू और लकड़ियों को भारतीय माफिया काले-बाजार में बेचकर मालामाल हो रहे हैं, लेकिन उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता। यह सवाल उन्होंने आमलोगों के जेहन में उतार दिया। कुसहा के निकट के हरिपुर गांव के एक ग्रामीण ने मुझे चेतावनीपूर्ण सलाह दी - सभी इंजीनियर-ओवरसियर भारत के रहेंगे तो यही होगा, अगर हमारे गांवों के लोगों को भी कोशी प्रोजेक्ट का इंजीनियर-हाकिम बनाया गया होता, तो किसकी मजाल थी कि काम रोक देता !! शायद यही वजह थी कि माओवादी नेताओं ने पिछले वर्षों में अपने कार्यकर्ताओं की मदद से दबाव बनाना शुरू किया कि इस लूट में उन्हें बराबर का साझीदार बनाया जाय, अन्यथा वे उन्हें सीमा के अंदर दाखिल नहीं होने देंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो गिद्धों की जमात पर चीलों ने धावा बोल दिया। गिद्ध इसके लिए तैयार नहीं थे। शुरू-शुरू में उन्होंने इन चीलों को कोई भाव नहीं दिया। लेकिन ये भूल गये कि निरंकुश राजतंत्र खटिये पर अंतिम सांसे गिन रहा है और अब उनके झबैत (डकैतों का संरक्षक) बदल चुके हैं। नेपाल की नई राजनीतिक व्यवस्था ने भारतीय गिद्धों की कोई मदद नहीं की। धीरे-धीरे नौबत यहां तक आ पहुंची कि इन्हें तटबंध क्षेत्र में गस्त करने से भी भय होने लगा क्योंकि नेपाली प्रशासन ने इनका सहयोग करना बंद कर दिया।
नेपाल के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया कि कोशी परियोजना के माफिया कोशी के नाम पर वर्षों से नेपाल के पहाड़ी और जंगली संसाधनों मसलन बोल्डर, बालू और लकड़ी का तस्करी कर रहे हैं। यहां तक कि तटबंधों के पुराने बोल्डरों तक को इन माफियाओं ने व्यावसायियों को बेच दिया। नये नेपाली बल-समूह को इनमें भी हिस्सेदारी चाहिए। इसलिए यह तय है कि आने वाले दिनों में मरी (मृत पशुओं की लाश) की मारामारी और बढ़ेगी। ऐसे में तटबंधों का क्या होगा ? इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। और दरबाजे पर दस्तक देते भविष्य के बारे में बात करने वाले को आप मनहूस ज्योतिष तो नहीं कहेंगे न ???

1 टिप्पणी:

admin ने कहा…

कोशी तटबंध के बहाने आपने एक गम्भीर समस्या पर प्रकाश डाला है।