शनिवार, 2 अगस्त 2008

इदम्‌ बाढ़म्‌ भ्यो नमः

रंजीत

उसका चेहरा बासी पांव रोटी जैसा भकुआएल था आैर उसकी बेतरतीब दाढ़ी ऐसी लगती थी जैसे डबल रोटी पर फफूंद उग आये हों। उसके पास आज भेजने लायक कोई खबर नहीं थीआैर उसे मालूम था कि इस बात को लेकर आठ बजे रात के बाद कभी भी संपादक साहब का फोन आ सकता है। संपादक के फोन का मतलब उसे बुरी तरह मालूम था, फिर भी वह निस्तेज बैठा रहा आैर मेरे बार-बार कहने के बावजूद उसने दफ्तर में रखा अस्सी दशक के कंप्यूटर को ऑन नहीं किया। वह राज्य के एक प्रमुख अखबार का ब्यूरो-प्रमुख थाआैर दो साल पहले उसे शंट करने के लिए मुख्यालय से डूबा जिला खगड़िया के यार्ड में लगा दिया गया था।
यह पांच वर्ष पहले की बात है। उस वर्ष समूचे उत्त्ार बिहार में बाढ़ नंगा नाच कर रही थी। सैकड़ों लोग जलसमाधि ले चुके थे आैर लाखों घरविहीन होकर विनाश-नृत्य के दर्शक बने हुए थे। अन्न,नमक, छत आैर पेयजल के लिए चारों ओर हाहाकार मचा हुआथा। सरकारी राहत राजधानी पटना के सचिवालय भवन से निकलकर हाकिमों के ड्राइंगरूम में ऐसे कैद हुई की लोगों को इसकी भनक तक नहीं लगी। दो वर्ष ही जाकर पता चला कि हाकिम ने राहत सामग्री में कैसी लूट मचायी थी।
किसी झक्खी की तरह मैं पटना से बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों की ओर निकल पड़ा था, बिना कुछ सोचे, बगैर कुछ विचारे। यह यात्रा न तो किसी मीडिया हाउस की रिपोर्टरी के लिए थी आैर न ही किसी संस्था के राहत कार्यों का मददगारके रूप में थी। बल्कि यूं कहिए कि किसी सिरफिरे के संभाषण की तरह थी वह यात्रा, जिसका कोई अभिप्राय , उद्देश्य आैर अर्थ नहीं था । शायद इसके पीछे पीड़ितों के विलाप में शामिल होने या दूसरे के दर्द को खुद में महसूस करनी की अवचेतन प्रेरणा रही होगी। हालांकि यह ठीक-ठीक मैं आज भी नहीं कह सकता हूं। .... देयर इज अलवेज ए सेपरेशन, बिटवीन पर्सन हू सफर्ड एंड एन आर्टिस्ट हू किएट, एंड ग्रेटर द आर्टिस्ट ग्रेटर द सेपरेशन ...
... तो मेरे उस मित्र ने (जिसके साथ हमने स्कूल के दिनों में अनगिनत खच्छरई की थी आैर साथ मिलकर बसों के शीसे तोड़े थे आैर न जाने बाल बितण्डा के कितने कीर्तीमान रचे थे)े मुझे खगड़िया के बाढ़ग्रस्त गांवों को दिखाने का पूरा जिम्मा ले लिया। खगड़िया शहर छोड़ने से पहले उसने मुझे दस मिनट की एक बाढ़-बुलेटिन सुनायी आैर खुद को तरोताजा कर लिया। वह खबर बांच रहा था- खगड़िया तो डूबने के लिए ही बना है। हर साल डूबता-उमगता-कराहता है, इस बार भी डूब गया, तो तुम्हारे बाप का क्या गया ! सोनमा मुसहर की चारों भैंसिया कोशी में बह गयी आैर पीर आलम मियां के दोनों पोते मोइन में भसिया गये, तो क्या पटना में हवाई जहाजें नहीं उड़े ! पीर आलम मियां की बुढ़िया, पोते को ढूंढते-ढूंढते इतना बाैरा गयी कि एक दिन मानसी रेलवे स्टेशन पर खड़े ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे एक यात्री दंपति के बच्चों पर अपना दावा ठोक बैठी। बुढ़िया ही थी, पगला भी गयी तो क्या हुआ? कोपरिया स्टेशन के बगल की घटना है, जहां की पूरी बस्ती इन दिनों रेलवे लाइन पर आश्रय ली हुई है। मानसी-सहरसा रेलवे लाइन्स अभी भी चालू है। पूरा इलाका ट्रैक पर ही दिन-रात, धूप-बारिश बिता रहा है। गाड़ी गुजरने के समय लोग बगल हो जाते हंै फिर बीच ट्रैक पर खटिया डाल लेते हंै।
मैंने उसे बीच में टोकते हुए कहा अब चल भी यार ! अरे चलते हैं- पूरी खबर तो सुन लो, मन करे तो पेज पर लगाओ नहीं तो कूड़ेदानी में फेंक दो। लेकिन खबर पक्की है। इलाके के सभी विधायक पटना भाग गये हैं। अब चाैमासा के बाद ही आयेंगे। चाैमासी का भोज खाने। हां सुन लो, बस- टैक्सी नहीं मिलेंगे। पैदल चलना होगा या फिर नाव से। एक-एक आदमी का पचास-साै रुपये मांगेगा। बििस्कट, नमक, भूजा आदि अगर झोला में रखोगे तो कुछ रियायत मिल सकती है। ऐसा करते हैं कि कोशी का बांध धर लेते हैं आैर उसी के सहारे जहां तक हो सकेगा चलते चलेंगे। बांध की दोनों ओर जल ही जल है, जीवन उसके जकड़ में डिड़िया रहा है।
कोपरिया स्टेशन से लगभग 25 किलोमीटर उत्त्ार एक जगह साै-दो साै लोगों का समूह किसी फरिश्ता का इंतजार कर रहा था। हालांकि वह आने वाला नहीं था। वह तब भी नहीं आया जब बाढ़ राहत के नाम पर करोड़ों मारने वाले नेता केंद्र में मंत्री बन गये। हम भी उस समूह में शामिल हो गये। हमने पूरी कोशिश की , लेकिन हमारे चेहरे उनके जैसे नहीं हो सके। उनके चेहरे अनन्त अवसादों के वज्रगृह थे, जबकि हमारे चेहरे दर्द भरे अंत वाले सिनेमा देखकर सिनेमा हॉल से निकल रहे दर्शकों के जैसे थे। वे सभी पस्त थे आैर हम ठस्स। सहानुभूति की आंसू बनाने की कला हमें आती नहीं थी अगर आती तो शायद हम भी नेता सरीखे दिखते। खैर, वहां खड़े बच्चे-बूढ़े, आैरत-मर्द हर किन्हीं की आंखें गांव से लाैटती हुई नावों की ओर लगी थीं। पांच दिन पहले कोशी नदी ने उनके गांवों को अपने आगोश में ले लिया था। रात को अचानक नदी उफना गयी आैर देखते ही देखते लोगों के घरों के टाटों (कच्चे दीवार) को पानी ने छेद दिया। सोयी हुई बस्ती में हाहाकार मच गया। निंदाती बस्ती अचानक चुंधिया गयी। उठने-जगने और भागने का की वक्त नहीं दी निगोड़ी कोशी ने। जान बचाकर भागने की हड़बड़ी में सैकड़ों मवेशी खूंटे से बंधे रह गये। जबतक पानी उतरेगा तबतक तो उनकी लाशें भी सड़ जायेंगी।
अचानक मुझे एक साल पहले की एक घटना याद आ गयी। तब बाढ़ की रिपोर्ट के लिए मैं बाढ़ पीड़ितों से मिला था। बांध पर आश्रय लिए पीड़ितों में से कुछ युवक ने तब डूबे हुए गांव से बचा-खुचा समान लाने निकले नवीन नाम का एक युवक उस दिन हमारी आंखों के सामने देखते ही देखते नदी की धारा में समा गया था। उसे बचाने के लिए पांच युवकों ने पानी में छलांगें लगा दी थीं। आबै चियो भाई, आबि गेलयो भाई ... डरियै नै! लेकिन उन पांच में से दो ही वापस लाैट सके थे। तीन युवकों ने काफी देर तक पानी की तेज धारा से संघर्ष किया, लेकिन धीरे-धीरे वे बहते चले गये। जब उनके संघर्षरत हाथ दिखने बंद हो गये तो मेरे बगल में खड़ी एक बुढ़िया ने भगवान को नाम लेकर गाली दी थी...
वापस जब हम खगड़िया लाैटे तो मेरे साथी ने याद दिलाया, स्कूल के दिनों के उस पागल बूढ़े की, जिसे हमलोग अक्सर तंग किया करते थे । उसने बताया, दरअसल उस बूढ़ा का जवान बेटा भी इसी तरह बाढ़ में डूबकर मर गया था। तब से वह लगातार बाढ़ देवी के नाम पर यत्र-तत्र होम करते रहता है। वह बूढ़ा कहीं भी बैठ जाता आैर आम की कुछ सूखी डालियों को सुलगाकर उसमें लोटा से बूंद-बूंद पानी गिराता आैर बकता- इदम्‌ बाढ़म भ्यो नमः , इदम्‌ बाढ़म भ्यो नमः ...

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